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हिन्दी भाषा का विकास

Hindi Language - हिन्दी भाषा

हिन्दी भाषा का विकास




  • 'हिंदी' विश्व की लगभग 3,000 भाषाओं में से एक है।




  • आकृति या रूप के आधार पर हिन्दी वियोगात्मक या विश्लिष्ट भाषा है।




  • भाषा-परिवार के आधार पर हिन्दी भारोपीय (Indo-European) परिवार की भाषा है।




  • भारत में 4 भाषा-परिवार- भारोपीय, द्रविड़, आस्ट्रिक व चीनी-तिब्बती मिलते हैं। भारत में बोलनेवालों के प्रतिशत के आधार पर भारोपीय परिवार सबसे बड़ा भाषा-परिवार है।

  • भाषा-परिवारभारत में बोलनेवालों का %
    भारोपीय73%
    द्रविड़25%
    आस्ट्रिक1.3%
    चीनी-तिब्बती0.7%



  • हिन्दी, भारोपीय/भारत-यूरोपीय के भारतीय-ईरानी (Indo-Iranian) शाखा के भारतीय आर्य (Indo-Aryan) उपशाखा की एक भाषा है।




  • भारतीय आर्यभाषा (भा. आ.) को तीन कालों में विभक्त किया जाता है।

  • नामप्रयोग कालउदाहरण
    प्राचीन भारतीय आर्यभाषा (प्रा. भा. आ.)1500 ई० पू० - 500 ई० पू०वैदिक संस्कृत व लौकिक संस्कृत
    मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा (म. भा. आ.)500 ई० पू - 1000 ई०पालि, प्राकृत, अपभ्रंश
    आधुनिक भारतीय आर्यभाषा (आ. भा. आ.)1000 ई० - अब तकहिन्दी और हिन्दीतर भाषाएं- बांग्ला, उड़िया, असमिया, मराठी, गुजराती, पंजाबी, सिंधी आदि
    प्राचीन भारतीय आर्यभाषा (प्रा. भा. आ.)
    नामअन्य नामप्रयोग काल
    वैदिक संस्कृतछान्दस (यास्क, पाणिनी द्वारा प्रयुक्त नाम)1500 ई० पू० - 1000 ई० पू०
    लौकिक संस्कृतसंस्कृत, भाषा (पाणिनी द्वारा प्रयुक्त नाम)1000 ई० पू० - 500 ई० पू०
    मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा (म. भा. आ.)
    नामप्रयोग कालविशेष टिप्पणी
    प्रथम प्राकृत काल : पालि500 ई० पू० - 1ली ई०भारत की प्रथम देश भाषा, भगवान बुद्ध के सारे उपदेश पालि में ही हैं।
    द्वितीय प्राकृत काल : प्राकृत1ली ई० - 500 ई०भगवान महावीर के सारे उपदेश प्राकृत में ही है।
    तृतीय प्राकृत काल : अपभ्रंश500-1000 ई०
    : अवहट्ट900-1100 ई०संक्रमणकालीन/संक्रातिकालीन भाषा
    आधुनिक भारतीय आर्यभाषा (आ. भा. आ.)
    हिन्दी
    प्राचीन हिन्दी1100 ई० - 1400 ई०
    मध्यकालीन हिन्दी1400 ई० - 1850 ई०
    आधुनिक हिन्दी1850 ई० - अब तक



  • हिन्दी की आदि जननी संस्कृत है। संस्कृत पालि, प्राकृत भाषा से होती हुई अपभ्रंश तक पहुँचती है। फिर अपभ्रंश, अवहट्ट से गुजरती हुई प्राचीन/प्रारंभिक हिन्दी का रूप लेती है। सामान्यतः हिन्दी भाषा के इतिहास का आरंभ अपभ्रंश से माना जाता है।

  • हिन्दी का विकास क्रम :
    संस्कृत-पालि-प्राकृत-अपभ्रंश-अवहट्ट-प्राचीन/प्रारंभिक हिन्दी
    (विकास चिह्न के लिए प्रयुक्त संकेत)
    अपभ्रंश



  • अपभ्रंश भाषा का विकास 500 ई० से लेकर 1000 ई० के मध्य हुआ और इसमें साहित्य का आरंभ 8वीं सदी (स्वयंभू कवि) से हुआ, जो 13वीं सदी तक जारी रहा।




  • अपभ्रंश (अप + भ्रंश + घञ) शब्द का यों तो शाब्दिक अर्थ है 'पतन' किन्तु अपभ्रंश साहित्य से अभीष्ट है- प्राकृत भाषा से विकसित भाषा विशेष का साहित्य।




  • प्रमुख रचनाकार : स्वयंभू- अपभ्रंश का वाल्मीकि ('पउम चरिउ' अर्थात राम काव्य), धनपाल ('भविस्सयत कहा'- अपभ्रंश का पहला प्रबंध काव्य), पुष्पदंत ('महापुराण', 'जसहर चरिउ'), सरहपा, कण्हपा आदि सिद्धों की रचनाएँ ('चरिया पद', 'दोहाकोशी') आदि।

  • अपभ्रंश से आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का विकास
    अपभ्रंश के भेदआधुनिक भारतीय आर्यभाषा
    शौरसेनीपश्चिमी हिन्दी
    राजस्थानी
    गुजराती
    अर्द्धमागधीपूर्वी हिन्दी
    मागधीबिहारी
    उड़िया
    बांग्ला
    असमिया
    खसपहाड़ी (शौरसेनी से प्रभावित)
    ब्राचड़पंजाबी (शौरसेनी से प्रभावित)
    सिन्धी
    महाराष्ट्रीमराठी
    अवहट्ट



  • अवहट्ट 'अपभ्रष्ट' शब्द का विकृत रूप है। इसे 'अपभ्रंश का अपभ्रंश या 'परवर्ती अपभ्रंश' कह सकते हैं। अवहट्ट अपभ्रंश और आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के बीच की संक्रमणकालीन/संक्रातिकालीन भाषा है। इसका कालखंड 900 ई० से 1100 ई० तक निर्धारित किया जाता है। वैसे साहित्य में इसका प्रयोग 14 वीं सदी तक होता रहा है।




  • अब्दुर रहमान, दामोदर पण्डित, ज्योतिरीश्वर ठाकुर, विद्यापति आदि रचनाकारों ने अपनी भाषा को 'अवहट्ट' या 'अवहट्ठ' कहा है। विद्यापति प्राकृत की तुलना में अपनी भाषा को मधुरतर बताते हैं : 'देसिल बयना सब जन मिट्ठा/ते तैसन जम्पञो अवहट्ठा' अर्थात, देश की भाषा सब लोगों के लिए मीठी है, इसे अवहट्ठा कहा जाता है।




  • प्रमुख रचनाकार : अद्दहमाण/अब्दुर रहमान ('संनेह रासय'/संदेश रासक'), दामोदर पण्डित ('उक्ति-व्यक्ति-प्रकरण'),ज्योतिरीश्वर ठाकुर ('वर्ण रत्नाकर'), विद्यापति ('कीर्तिलता'), रोड कवि ('राउलवेल') आदि।

  • प्राचीन या पुरानी हिन्दी/प्रारंभिक या आरंभिक हिन्दी/आदिकालीन हिन्दी



  • मध्यदेशीय भाषा-परंपरा की विशिष्ट उत्तराधिकारिणी होने के कारण हिन्दी का स्थान आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं में सर्वोपरि है।




  • प्राचीन हिन्दी से अभिप्राय है- अपभ्रंश-अवहट्ट के बाद की भाषा।




  • हिन्दी का आदिकाल हिन्दी भाषा का शिशु-काल है। यह वह काल था जब अपभ्रंश-अवहट्ट का प्रभाव हिन्दी भाषा पर मौजूद था और हिन्दी की बोलियों के निश्चित व स्पष्ट स्वरूप विकसित नहीं हुए थे

  • उपर्युक्त बातों से तीन बातें सामने आती हैं-
    (1) 'हिन्दी' शब्द का विकास कई चरणों में हुआ-
    सिंधु - हिन्दु - हिन्द + ई - हिन्दी।
    (2) 'हिन्दी' शब्द मूलतः फारसी का है न कि हिन्दी भाषा का। यह ऐसे ही है जैसे बच्चा हमारे घर जन्मे और उसका नामकरण हमारा पड़ोसी करे।
    (3)'हिन्दी' शब्द के दो अर्थ हैं- 'हिन्द देश के निवासी' (यथा- 'हिन्दी है हम, वतन है हिन्दोस्तां हमारा'- इक़बाल) और 'हिन्द की भाषा'।



  • प्रमुख रचनाकार : 'हिन्दी' शब्द भाषा विशेष का वाचक नहीं है बल्कि यह भाषा-समूह का नाम है। हिन्दी जिस भाषा-समूह का नाम है उसमें आज के हिन्दी प्रदेश/क्षेत्र की 5 उपभाषाएँ तथा 17 बोलियाँ शामिल हैं। बोलियों में ब्रजभाषा, अवधी एवं खड़ी बोली को आगे चलकर मध्यकाल में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ।




  • ब्रजभाषा : प्राचीन हिन्दी काल में ब्रजभाषा अपभ्रंश-अवहट्ट से ही जीवन-रस लेती रही। अपभ्रंश-अवहट्ट की रचनाओं में ब्रजभाषा के फूटते हुए अंकुर को देखा जा सकता है। ब्रजभाषा साहित्य का प्राचीनतम उपलब्ध ग्रंथ सुधीर अग्रवाल का 'प्रद्युम्न चरित' (1354 ई०) हैं।




  • अवधी : अवधी की पहली कृति मुल्ला दाउद की 'चंदायन' या 'लोरकहा' (1370 ई०) मानी जाती है। इसके उपरांत अवधी भाषा के साहित्य का उत्तरोतर विकास होता गया।




  • खड़ी बोली : प्राचीन हिन्दी काल में रचित खड़ी बोली साहित्य में खड़ी बोली के आरंभिक प्रयोगों से उसके आदि रूप या बीज रूप का आभास मिलता है। खड़ी बोली का आदिकालीन रूप सरहपा आदि सिद्धों, गोरखनाथ आदि नाथों, अमीर खुसरो जैसे सूफियों, जयदेव, नामदेव, रामानंद आदि संतों की रचनाओं में उपलब्ध है। इन रचनाकारों में हमें अपभ्रंश-अवहट्ट से निकलती हुई खड़ी बोली स्पष्टतः दिखाई देती है।

  • मध्यकालीन हिन्दी


  • मध्यकाल में हिन्दी का स्वरूप स्पष्ट हो गया तथा उसकी प्रमुख बोलियाँ विकसित हो गई। इस काल में भाषा के तीन रूप निखरकर सामने आए- ब्रजभाषा, अवधी व खड़ी बोली। ब्रजभाषा और अवधी का अत्यधिक साहित्यिक विकास हुआ तथा तत्कालीन ब्रजभाषा साहित्य को कुछ देशी राज्यों का संरक्षण भी प्राप्त हुआ। इनके अतिरिक्त मध्यकाल में खड़ी बोली के मिश्रित रूप का साहित्य में प्रयोग होता रहा। इसी खड़ी बोली का 14वीं सदी में दक्षिण में प्रवेश हुआ, अतः वहाँ इसका साहित्य में अधिक प्रयोग हुआ। 18वीं सदी में खड़ी बोली को मुसलमान शासकों का संरक्षण मिला तथा इसके विकास को नई दिशा मिली।

  • प्रमुख रचनाकार


  • ब्रजभाषा : हिन्दी के मध्यकाल में मध्य देश की महान भाषा परंपरा के उत्तरदायित्व का पूरा निर्वाह ब्रजभाषा ने किया। यह अपने समय की परिनिष्ठित व उच्च कोटि की साहित्यिक भाषा थी, जिसको गौरवान्वित करने का सर्वाधिक श्रेय हिन्दी के कृष्णभक्त कवियों को है। पूर्व मध्यकाल (अर्थात भक्तिकाल)में कृष्णभक्त कवियों ने अपने साहित्य में ब्रजभाषा का चरम विकास किया। पुष्टि मार्ग/शुद्धाद्वैत संप्रदाय के सूरदास ('सूर सागर'), नंद दास, निम्बार्क संप्रदाय के श्री भट्ट, चैतन्य संप्रदाय के गदाधर भट्ट, राधा-वल्लभ संप्रदाय के हित हरिवंश (श्री कृष्ण की बाँसुरी के अवतार) एवं संप्रदाय-निरपेक्ष कवियों में रसखान, मीराबाई आदि प्रमुख कृष्णभक्त कवियों ने ब्रजभाषा के साहित्यिक विकास में अमूल्य योगदान दिया। इनमें सर्वप्रमुख स्थान सूरदास का है जिन्हें 'अष्टछाप का जहाज' कहा जाता है। उत्तर मध्यकाल (अर्थात रीतिकाल) में अनेक आचार्यो एवं कवियों ने ब्रजभाषा में लाक्षणिक एवं रीति ग्रंथ लिखकर ब्रजभाषा के साहित्य को समृद्ध किया। रीतिबद्ध कवियों में केशवदास, मतिराम, बिहारी, देव, पद्माकर, भिखारी दास, सेनापति, मतिराम आदि तथा रीतिमुक्त कवियों में घनानंद, आलम, बोधा आदि प्रमुख हैं। (ब्रजबुलि- बंगाल में कृष्णभक्त कवियों द्वारा प्रचारित भाषा का नाम।)



  • अवधी : अवधी को साहित्यिक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय सूफी/प्रेममार्गी कवियों को है। कुत्बन ('मृगावती'), जायसी ('पद्मावत'), मंझन ('मधुमालती'), आलम ('माधवानल कामकंदला'), उसमान ('चित्रावली'), नूर मुहम्मद ('इन्द्रावती'), कासिमशाह ('हंस जवाहिर'), शेख निसार ('यूसुफ़ जुलेखा'), अलीशाह ('प्रेम चिंगारी') आदि सूफी कवियों ने अवधी को साहित्यिक गरिमा प्रदान की। इनमें सर्वप्रमुख जायसी थे। अवधी को रामभक्त कवियों ने अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया, विशेषकर तुलसीदास ने 'राम चरित मानस' की रचना बैसबाड़ी अवधी में कर अवधी भाषा को जिस साहित्यिक ऊँचाई पर पहुँचाया वह अतुलनीय है। मध्यकाल में साहित्यिक अवधी का चरमोत्कर्ष दो कवियों में मिलता है जायसी और तुलसीदास में। जायसी के यहाँ अवधी का ठेठ ग्रामीण रूप में मिलता है वहाँ तुलसी के यहाँ अवधी का तत्सममुखी रूप। (गोहारी/गोयारी- बंगाल में सूफियों द्वारा प्रचारित अवधी भाषा का नाम।)



  • खड़ी बोली : मध्यकाल में खड़ी बोली का मुख्य केन्द्र उत्तर से बदलकर दक्कनी में हो गया। इस प्रकार, मध्यकाल में खड़ी बोली के दो रूप हो गए- उत्तरी हिन्दी व दक्कनी हिन्दी। खड़ी बोली का मध्यकालीन रूप कबीर, नानक, दादू, मलूकदास, रज्जब आदि संतों; गंग की 'चन्द छन्द वर्णन की महिमा', रहीम के 'मदनाष्टक', आलम के 'सुदामा चरित', जटमल की 'गोरा बादल की कथा', वली, सौदा, इन्शा, नजीर आदि दक्कनी एवं उर्दू के कवियों, 'कुतुबशतम' (17वीं सदी), 'भोगलू पुराण' (18वीं सदी), सन्त प्राणनाथ के 'कुलजमस्वरूप' आदि में मिलता है।

  • आधुनिककालीन हिन्दी


  • हिन्दी के आधुनिक काल तक आतेआते ब्रजभाषा जनभाषा से काफी दूर हट चुकी थी और अवधी ने तो बहुत पहले से ही साहित्य से मुँह मोड़ लिया था। 19वीं सदी के मध्य तक अंग्रेजी सत्ता का महत्तम विस्तार भारत में हो चुका था। इस राजनीतिक परिवर्तन का प्रभाव मध्य देश की भाषा हिन्दी पर भी पड़ा। नवीन राजनितिक परिस्थितियों ने खड़ी बोली को प्रोत्साहन प्रदान किया। जब ब्रजभाषा और अवधी का साहित्यिक रूप जनभाषा से दूर हो गया तब उनका स्थान खड़ी बोली धीरे-धीरे लेने लगी। अंग्रेजी सरकार ने भी इसका प्रयोग आरंभ कर दिया।



  • हिन्दी के आधुनिक काल में प्रारंभ में एक ओर उर्दू का प्रचार होने और दूसरी ओर काव्य की भाषा ब्रजभाषा होने के कारण खड़ी बोली को अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ा। 19वीं सदी तक कविता की भाषा ब्रजभाषा और गद्य की भाषा खड़ी बोली रही। 20वीं सदी के आते-आते खड़ी बोली गद्य-पद्य दोनों की साहित्यिक भाषा बन गई।



  • इस युग में खड़ी बोली को प्रतिष्ठित करने में विभिन्न धार्मिक, सामाजिक एवं राजनीतिक आंदोलनों ने बड़ी सहायता की। फलतः खड़ी बोली साहित्य की सर्वप्रमुख भाषा बन गयी।

  • खड़ी बोली


  • भारतेन्दु-पूर्व युग : खड़ी बोली गद्य के आरंभिक रचनाकारों में फोर्ट विलियम कॉलेज के बाहर के दो रचनाकारों- सदासुख लाल 'नियाज' ('सुखसागर') व इंशा अल्ला खां ('रानी केतकी की कहानी')- तथा फोर्ट विलियम कॉलेज, कलकत्ता के दो भाषा मुंशियों- लल्लू लालजी ('प्रेम सागर') व सदल मिश्र ('नसिकेतोपाख्यान')- के नाम उल्लेखनीय हैं। भारतेन्दु-पूर्व युग में मुख्य संघर्ष हिन्दी की स्वीकृति और प्रतिष्ठा को लेकर था। इस युग के दो प्रसिद्ध लेखकों-राजा शिव प्रसाद 'सितारे हिन्द' व राजा लक्ष्मण सिंह- ने हिन्दी के स्वरूप निर्धारण के प्रश्न पर दो सीमांतों का अनुगमन किया। राजा शिव प्रसाद ने हिन्दी का गँवारूपन दूर कर-कर उसे उर्दू-ए मुअल्ला बना दिया तो राजा लक्ष्मण सिंह ने विशुद्ध संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का समर्थन किया।



  • भारतेन्दु युग (1850 ई०-1900 ई०) : इन दोनों के बीच सर्वमान्य हिन्दी गद्य की प्रतिष्ठा कर गद्य साहित्य की विविध विधाओं का ऐतिहासिक कार्य भारतेन्दु युग में हुआ। हिन्दी सही मायने में भारतेन्दु के काल में 'नई चाल में ढली' और उनके समय में ही हिन्दी के गद्य के बहुमुखी रूप का सूत्रपात हुआ। उन्होंने न केवल स्वयं रचना की बल्कि अपना एक लेखक मंडल भी तैयार किया, जिसे 'भारतेन्दु मंडल' कहा गया। भारतेन्दु युग की महत्वपूर्ण उपलब्धि यह रही कि गद्य रचना के लिए खड़ी बोली को माध्यम रूप में अपनाकर युगानुरूप स्वस्थ दृष्टिकोण का परिचय दिया। लेकिन पद्य रचना के मामले में ब्रजभाषा या खड़ी बोली को अपनाने के प्रश्न पर विवाद बना रहा जिसका अंत द्विवेदी युग में जाकर हुआ।



  • द्विवेदी युग (1900 ई०-1920 ई०) : खड़ी बोली और हिन्दी साहित्य के सौभाग्य से 1903 ई० में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदीने 'सरस्वती' पत्रिका के संपादकत्व का भार संभाला। वे सरल और शुद्ध भाषा के प्रयोग के हिमायती थे। वे लेखकों की वर्तनी अथवा व्याकरण संबंधी त्रुटियों का संशोधन स्वयं करते चलते थे। उन्होंने हिन्दी के परिष्कार का बीड़ा उठाया और उसे बखूबी अंजाम दिया। गद्य तो भारतेन्दु युग से ही सफलतापूर्वक खड़ी बोली में लिखा जा रहा था, अब पद्य की व्यावहारिक भाषा भी एकमात्र खड़ी बोली प्रतिष्ठित होने लगी। इस प्रकार ब्रजभाषा, जिसके साथ 'भाषा' शब्द जुड़ा है, अपने क्षेत्र में सीमित हो गई अर्थात 'बोली' बन गई। इसके मुकाबले में खड़ी बोली, जिसके साथ 'बोली' शब्द लगा है, 'भाषा' बन गई, और इसका सही नाम 'हिन्दी' हो गया। अब खड़ी बोली दिल्ली के आस-पास की मेरठ-जनपदीय बोली नहीं रह गई अपितु वह समस्त उत्तरी भारत के साहित्य का माध्यम बन गई। द्विवेदी युग में साहित्य रचना की विविध विधाएं विकसित हुई। महावीर प्रसाद द्विवेदी, श्याम सुंदर दास, पद्म सिंह शर्मा, माधव प्रसाद मिश्र, पूर्ण सिंह, चंद्रधर शर्मा गुलेरी आदि के अवदान विशेषतः उल्लेखनीय हैं।



  • छायावाद युग (1918 ई०-1936 ई०) एवं उसके बाद :साहित्यिक खड़ी बोली हिन्दी के विकास में छायावाद युग का योगदान महत्वपूर्ण है। प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी वर्मा और राम कुमार वर्मा आदि ने इसमें महती योगदान दिया। इनकी रचनाओं को देखते हुए यह कोई नहीं कह सकता है कि खड़ी बोली सूक्ष्म भावों को अभिव्यक्त करने में ब्रजभाषा से कम समर्थ है। हिन्दी में अनेक भाषायी गुणों का समावेश हुआ। अभिव्यंजना की विविधता, बिंबों की लाक्षणिकता, रसात्मक लालित्य छायावाद युग की भाषा की अन्यतम विशेषताएं है। हिन्दी काव्य में छायावाद युग के बाद प्रगतिवाद युग (1936 ई०-1946 ई०) प्रयोगवाद युग (1943 से) आदि आए। इस दौर में खड़ी बोली का काव्य भाषा के रूप में उत्तरोत्तर विकास होता गया। 
    पद्य के ही नहीं, गद्य के संदर्भ में भी छायावाद युग साहित्यिक खड़ी बोली के विकास का स्वर्ण युग था। कथा साहित्य (उपन्यास व कहानी) में प्रेमचंद, नाटक में जयशंकर प्रसाद, आलोचना में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने जो भाषा-शैलियाँ और मर्यादाएं स्थापित की उनका अनुसरण आज भी किया जा रहा है। गद्य-साहित्य के क्षेत्र में इनके महत्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि गद्य-साहित्य के विभिन्न विधाओं के इतिहास में कालों का नामकरण इनके नाम को केन्द्र में रखकर किया गया है, जैसे उपन्यास के इतिहास में प्रेमचंद-पूर्व युग, प्रेमचन्द युग, प्रेमचंदोत्तर युग; नाटक के इतिहास में प्रसाद-पूर्व युग, प्रसाद युग, प्रसादोत्तर युग; आलोचना के इतिहास में शुक्ल-पूर्व युग, शुक्ल युग, शुक्लोत्तर युग।

  • हिंदी के विभिन्न नाम या रूप
    (1) हिन्दवी/हिन्दुई/जबान-ए-हिन्दी/देहलवी : मध्यकाल में मध्यदेश के हिन्दुओं की भाषा, जिससे अरबी-फारसी शब्दों का अभाव है। [सर्वप्रथम अमीर खुसरो (1253-1325) ने मध्य देश की भाषा के लिए हिन्दवी, हिन्दी शब्द का प्रयोग किया। उन्होंने देशी भाषा हिन्दवी, हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए एक फारसी-हिन्दी कोश 'खालिक बारी' की रचना की, जिसमें हिन्दवी शब्द 30 बार, हिन्दी शब्द 5 बार देशी भाषा के लिए प्रयुक्त हुआ है।]
    (2) भाषा/भाखा : विद्यापति, कबीर, तुलसी, केशवदास आदि ने भाषा शब्द का प्रयोग हिन्दी के लिए किया है। [19 वीं सदी के प्रारंभ तक इस शब्द का प्रयोग होता रहा है। फोर्ट विलियम कॉलेज में नियुक्त हिन्दी अध्यापकों को 'भाषा मुंशी' के नाम से अभिहित करना इसी बात का सूचक है।]
    (3) रेख्ता : मध्यकाल में मुसलमानों में प्रचलित अरबी-फारसी शब्दों से मिश्रित कविता की भाषा। (जैसे- मीर, ग़ालिब की रचनाएँ)
    (4) दक्खिनी/दक्कनी : मध्यकाल में दक्कन के मुसलमानों द्वारा फारसी लिपि में लिखी जानेवाली भाषा। [हिन्दी में गद्य रचना परंपरा की शुरुआत करने का श्रेय दक्कनी हिन्दी के रचनाकारों को ही है। दक्कनी हिन्दी को उत्तरी भारत में लाने का श्रेय प्रसिद्ध शायर वली दक्कनी (1667-1707) को है। वह मुगल शासन काल में दिल्ली पहुँचा और उत्तरी भारत में दक्कनी हिन्दी को लोकप्रिय बनाया।]
    (5) खड़ी बोली 
    खड़ी बोली की 3 शैलियाँ
    हिन्दी/शुद्ध हिन्दी/उच्च हिन्दी/नागरी हिन्दी/आर्यभाषा : नागरी लिपि में लिखित संस्कृत बहुल खड़ी बोली (जैसे-जयशंकर प्रसाद की रचनाएँ)
    उर्दू/जबान-ए-उर्दू/जबान-ए-उर्दू-मुअल्ला : फारसी लिपि में लिखित अरबी-फारसी बहुल खड़ी बोली (जैसे-मण्टो की रचनाएँ)
    हिन्दुस्तानी : हिन्दी-उर्दू का मिश्रित रूप व आम जन द्वारा प्रयुक्त (जैसे- प्रेमचंद्र की रचनाएँ)
    नोट : 13वीं सदी से 18वीं सदी तक हिन्दी-उर्दू में कोई मौलिक भेद नहीं था।
    हिन्दी के विभिन्न अर्थ
    (1) भाषा शास्त्रीय अर्थ : नागरी लिपि में लिखित संस्कृत बहुल खड़ी बोली।
    (2) संवैधानिक/क़ानूनी अर्थ : संविधान के अनुसार, हिन्दी भारत संघ की राजभाषा या अधिकृत भाषा तथा अनेक राज्यों की राजभाषा है।
    (3) सामान्य अर्थ : समस्त हिन्दी भाषी क्षेत्र की परिनिष्ठित भाषा अर्थात शासन, शिक्षा, साहित्य, व्यापार आदि की भाषा।
    (4) व्यापक अर्थ : आधुनिक युग में हिन्दी को केवल खड़ी बोली में ही सीमित नहीं किया जा सकता। हिन्दी की सभी उपभाषाएँ और बोलियाँ हिन्दी के व्यापक अर्थ में आ जाती हैं।

    स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान हिन्दी का राष्ट्रभाषा के रूप में विकास

    राष्ट्रभाषा (National Language) क्या है ?
    (1) राष्ट्रभाषा का शाब्दिक अर्थ है- समस्त राष्ट्र में प्रयुक्त भाषा अर्थात आम जन की भाषा (जनभाषा) । जो भाषा समस्त राष्ट्र में जन-जन के विचार-विनिमय का माध्यम हो, वह राष्ट्रभाषा कहलाती है।
    (2) राष्ट्रभाषा राष्ट्रीय एकता एवं अंतर्राष्ट्रीय संवाद-सम्पर्क की आवश्यकता की उपज होती है। वैसे तो सभी भाषाएँ राष्ट्रभाषाएँ होती हैं किन्तु राष्ट्र की जनता जब स्थानीय एवं तात्कालिक हितों व पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर अपने राष्ट्र की कई भाषाओं में से किसी एक भाषा को चुनकर उसे राष्ट्रीय अस्मिता का एक आवश्यक उपादान समझने लगती है तो वही राष्ट्रभाषा है।
    (3) स्वतंत्रता--संग्राम के दौरान राष्ट्रभाषा की आवश्यकता होती है। भारत के संदर्भ में इस आवश्यकता की पूर्ति हिन्दी ने किया। यही कारण है कि हिन्दी स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान (विशेषतः 1900 ई०-1947 ई०) राष्ट्रभाषा बनी।
    (4) राष्ट्रभाषा शब्द कोई संवैधानिक शब्द नहीं है बल्कि यह प्रयोगात्मक, व्यावहारिक व जनमान्यता-प्राप्त शब्द है।
    (5) राष्ट्रभाषा सामाजिक-सांस्कृतिक मान्यताओं-परंपराओं के द्वारा सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर देश को जोड़ने का काम करती है अर्थात राष्ट्रभाषा की प्राथमिक शर्त देश में विभिन्न समुदायों के बीच भावनात्मक एकता स्थापित करना है।
    (6) राष्ट्रभाषा का प्रयोग-क्षेत्र विस्तृत और देशवासी होता है। राष्ट्रभाषा सारे देश की संपर्क-भाषा होती है। इसका व्यापक अनाधार होता है।
    (7) राष्ट्रभाषा हमेशा स्वभाषा ही हो सकती है क्योंकि उसी के साथ जनता का भावनात्मक लगाव होता है।
    (राष्ट्रभाषा का स्वरूप लचीला होता है और इसे जनता के अनुरूप किसी भी रूप में ढाला जा सकता है।
    (8) राष्ट्रभाषा का स्वरूप लचीला होता है और इसे जनता के अनुरूप किसी भी रूप में ढाला जा सकता है।

    (1)अंग्रेजों का योगदान



  • राष्ट्रभाषा सारे देश की सम्पर्क-भाषा (link-language) होती है। हिन्दी दीर्घकाल से सारे देश में जन-जन के पारस्परिक सम्पर्क की भाषा रही है। यह केवल उत्तर भारत की भाषा नहीं, बल्कि दक्षिण भारत के आचार्यो- वल्लभाचार्य, रामानुज, आदि- ने भी इसी भाषा के माध्यम से अपने मतों का प्रचार किया था। अहिन्दी भाषी राज्यों के भक्त-संत कवियों (जैसे असम के शंकर देव, महाराष्ट्र के ज्ञानेश्वर व नामदेव, गुजरात के नरसी मेहता, बंगाल के चैतन्य आदि) ने इसी भाषा को अपने धर्म और साहित्य का माध्यम बनाया था।



  • यही कारण था कि जब जनता और सरकार के बीच संवाद-स्थापना के क्रम में फारसी या अंग्रेजी के माध्यम से दिक्कतें पेश आई तो कंपनी सरकार ने फोर्ट विलियम कॉलेज में हिन्दुस्तानी विभाग खोलकर अधिकारियों को हिन्दी सिखाने की व्यवस्था की। यहाँ से हिन्दी पढ़े हुए अधिकारियों ने भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में उसका प्रत्यक्ष लाभ देखकर मुक्त कंठ से हिन्दी को सराहा।



  • सी० टी० मेटकाफ ने 1806 ई० में अपने शिक्षा गुरु जान गिलक्राइस्ट को लिखा : 'भारत के जिस भाग में भी मुझे काम करना पड़ा है, कलकत्ता से लेकर लाहौर तक, कुमाऊँ के पहाड़ों से लेकर नर्मदा तक.... मैंने उस भाषा का आम व्यवहार देखा है, जिसकी शिक्षा आपने मुझे दी है...... मैं कन्याकुमारी से कश्मीर तक या जावा से सिन्धु तक इस विश्वास से यात्रा करने की हिम्मत कर सकता हूँ कि मुझे हर जगह ऐसे लोग मिल जाएँगे जो हिन्दुस्तानी बोल लेते होंगे।'



  • टॉमस रोबक ने 1807 ई० में लिखा : 'जैसे इंग्लैण्ड जानेवाले को लैटिन सेक्सन या फ्रेंच के बदले अंग्रेजी सीखनी चाहिए वैसे ही भारत आने वाले को अरबी-फारसी या संस्कृत के बदले हिन्दुस्तानी सीखनी चाहिए।'



  • विलियम केरी ने 1816 ई० में लिखा : 'हिन्दी किसी एक प्रदेश की भाषा नहीं बल्कि देश में सर्वत्र बोली जानेवाली भाषा है।



  • एच० टी० कोलब्रुक ने लिखा : 'जिस भाषा का व्यवहार भारत के प्रत्येक प्रांत के लोग करते हैं, जो पढ़े-लिखे तथा अनपढ़ दोनों की साधारण बोलचाल की भाषा है, जिसको प्रत्येक गाँव में थोड़े-बहुत लोग अवश्य समझ लेते हैं, उसी का यथार्थ नाम हिन्दी है।



  • जार्ज ग्रियर्सन ने हिन्दी को 'आम बोलचाल की महाभाषा' (Great Lingua France) कहा है।



  • इन विद्वानों के मंतव्यों से स्पष्ट है कि ही हिन्दी की व्यावहारिक उपयोगिता, देशव्यापी प्रसार एवं प्रयोगगत लचीलेपन के कारण अंग्रेजों ने हिन्दी को अपनाया। उस समय हिन्दी और उर्दू को एक ही भाषा मानी जाती थी जो दो लिपियों में लिखी जाती थी। अंग्रेजों ने हिन्दी को प्रयोग में लाकर हिन्दी की महती संभावनाओं की ओर राष्ट्रीय नेताओं एवं साहित्यकारों का ध्यान खींचा।

  • (2) धर्म/समाज सुधारकों का योगदान



  • धर्म/समाज सुधार की प्रायः सभी संस्थाओं ने हिन्दी के महत्व को भाँपा और हिन्दी की हिमायत की।



  • ब्रह्म समाज (1828 ई०) के संस्थापक राजा राममोहन राय ने कहा : 'इस समग्र देश की एकता के लिए हिन्दी अनिवार्य है' । ब्रह्मसमाजी केशव चन्द्र सेन ने 1875 ई० में एक लेख लिखा- 'भारतीय एकता कैसे हो', जिसमें उन्होंने लिखा : 'उपाय है सारे भारत में एक ही भाषा का व्यवहार। अभी जितनी भाषाएँ भारत में प्रचलित है, उनमें हिन्दी भाषा लगभग सभी जगह प्रचलित है। यह हिन्दी अगर भारतवर्ष की एकमात्र भाषा बनायी जाय, तो यह काम सहज ही और शीघ्र सम्पन्न हो सकता है' । एक अन्य ब्रह्मसमाजी नवीन चन्द्र राय ने पंजाब में हिन्दी के विकास के लिए स्तुत्य योगदान दिया।



  • आर्य समाज (1875 ई०) के संस्थापक दयानंद सरस्वतीगुजराती भाषी थे एवं गुजराती व संस्कृत के अच्छे जानकार थे। हिन्दी का उन्हें सिर्फ कामचलाऊ ज्ञान था, पर अपनी बात अधिक-से-अधिक लोगों तक पहुँचाने के लिए तथा देश की एकता को मजबूत करने के लिए उन्होंने अपना सारा धार्मिक साहित्य हिन्दी में लिखा। उनका कहना था कि 'हिन्दी के द्वारा सारे भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है'। वे इस 'आर्यभाषा' को सर्वात्मना देशोन्नति का मुख्य आधार मानते थे। उन्होंने हिन्दी के प्रयोग को राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान किया। वे कहते थे, 'मेरी आँखें उस दिन को देखना चाहती है जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक सब भारतीय एक भाषा समझने और बोलने लग जायँ।'



  • अरविंद दर्शन के प्रणेता अरविंद घोष की सलाह थी कि 'लोग अपनी-अपनी मातृभाषा की रक्षा करते हुए सामान्य भाषा के रूप में हिन्दी को ग्रहण करें।



  • थियोसोफिकल सोसायटी (1875 ई०) की संचालिका ऐनी बेसेंट ने कहा था : 'भारतवर्ष के भिन्न-भिन्न भागों में जो अनेक देशी भाषाएँ बोली जाती हैं, उनमें एक भाषा ऐसी है जिसमें शेष सब भाषाओं की अपेक्षा एक भारी विशेषता है, वह यह कि उसका प्रचार सबसे अधिक है। वह भाषा हिन्दी है। हिन्दी जाननेवाला आदमी संपूर्ण भारतवर्ष में यात्रा कर सकता है और उसे हर जगह हिन्दी बोलनेवाले मिल सकते हैं। ...... भारत के सभी स्कूलों में हिन्दी की शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए।'



  • उपर्युक्त धार्मिक/सामाजिक संस्थाओं के अतिरिक्त प्रार्थना समाज (स्थापना 1867 ई०, संस्थापक-आत्मारंग पाण्डुरंग), सनातन धर्म सभा (स्थापना 1895 ई०, संस्थापक-पं० दीनदयाल शर्मा), रामकृष्ण मिशन (स्थापना 1897 ई०, संस्थापक-विवेकानंद) आदि ने हिन्दी प्रचार में योग दिया।



  • इससे लगता है कि धर्म/समाज सुधारकों की यह सोच बन चुकी थी कि राष्ट्रीय स्तर पर संवाद स्थापित करने के लिए हिन्दी आवश्यक है। वे जानते थे कि हिन्दी बहुसंख्यक जन की भाषा है, एक प्रांत के लोग दूसरे प्रांत के लोगों से सिर्फ इसी भाषा में विचारों का आदान-प्रदान कर सकते हैं। भावी राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को बढ़ाने का कार्य इन्हीं धर्म/समाज सुधारकों ने किया।

  • (3) कांग्रेस के नेताओं का योगदान



  • 1885 ई० में कांग्रेस की स्थापना हुई। जैसे-जैसे कांग्रेस का राष्ट्रीय आंदोलन जोर पकड़ता गया, वैसे-वैसे राष्ट्रीयता, राष्ट्रीय झंडा एवं राष्ट्रभाषा के प्रति आग्रह बढ़ता गया।



  • 1917 ई० में लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने कहा : 'यद्यपि मैं उन लोगों में से हूँ जो चाहते है और जिनका विचार है कि हिन्दी ही भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है।' तिलक ने भारतवासियों से आग्रह किया कि हिन्दी सीखें।



  • महात्मा गाँधी राष्ट्र के लिए राष्ट्रभाषा को नितांत आवश्यक मानते थे। उनका कहना था : 'राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है'। गाँधीजी हिन्दी के प्रश्न को स्वराज का प्रश्न मानते थे : 'हिन्दी का प्रश्न स्वराज का प्रश्न है'। उन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में सामने रखकर भाषा-समस्या पर गंभीरता से विचार किया। 1917 ई० भड़ौच में आयोजित गुजरात शिक्षा परिषद के अधिवेशन में सभापति पद से भाषण देते हुए गाँधीजी ने कहा :
    राष्ट्रभाषा के लिए 5 लक्षण या शर्ते होनी चाहिए-
    (1)अमलदारों (राजकीय अधिकारियों) के लिए वह भाषा सरल होनी चाहिए।
    (2)यह जरूरी है कि भारतवर्ष के बहुत से लोग उस भाषा को बोलते हों।
    (3)उस भाषा के द्वारा भारतवर्ष का अपनी धार्मिक, आर्थिक और राजनैतिक व्यवहार हो सकना चाहिए।
    (4)राष्ट्र के लिए वह भाषा आसान होनी चाहिए।
    (5)उस भाषा का विचार करते समय किसी क्षणिक या अल्पस्थायी स्थिति पर जोर नहीं देनी चाहिए।''
    वर्ष 1918 ई० में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के इन्दौर अधिवेशनमें सभापति पद से भाषण देते हुए गाँधीजी ने राष्ट्रभाषा हिन्दी का समर्थन किया : 'मेरा यह मत है कि हिन्दी ही हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा हो सकती है और होनी चाहिए'। इसी अधिवेशन में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि प्रतिवर्ष 6 दक्षिण भारतीय युवक हिन्दी सीखने को प्रयाग भेजे जाएं और 6 उत्तर भारतीय युवक को दक्षिणी भाषाएँ सीखने तथा हिन्दी का प्रचार करने के लिए दक्षिण भारत में भेजा जाए। इन्दौर सम्मेलन के बाद उन्होंने हिन्दी के कार्य को राष्ट्रीय व्रत बना दिया। दक्षिण में प्रथम हिन्दी प्रचारक के रूप में गाँधीजी ने अपने सबसे छोटे पुत्र देवदास गाँधी को दक्षिण में मद्रास भेजा। गाँधीजी की प्रेरणा से मद्रास (1927 ई०) एवं वर्धा (1936 ई०) में राष्ट्रभाषा प्रचार सभाएं स्थापित की गई।



  • वर्ष 1925 ई० में कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन में गाँधीजी की प्रेरणा से यह प्रस्ताव पारित हुआ कि 'कांग्रेस का, कांग्रेस की महासमिति का और कार्यकारिणी समिति का काम-काज आमतौर पर हिन्दी में चलाया जाएगा' । इस प्रस्ताव से हिन्दी-आंदोलन को बड़ा बल मिला।



  • वर्ष 1927 ई० में गाँधीजी ने लिखा : 'वास्तव में ये अंग्रेजी में बोलनेवाले नेता हैं जो आम जनता में हमारा काम जल्दी आगे बढ़ने नहीं देते। वे हिन्दी सीखने से इंकार करते हैं जबकि हिन्दी द्रविड़ प्रदेश में भी तीन महीने के अंदर सीखी जा सकती है।



  • वर्ष 1927 ई० में सी० राजगोपालाचारी ने दक्षिणवालों को हिन्दी सीखने की सलाह दी और कहा : 'हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा तो है ही, यही जनतंत्रात्मक भारत में राजभाषा भी होगी' ।



  • वर्ष 1928 ई० में प्रस्तुत नेहरू रिपोर्ट में भाषा संबंधी सिफारिश में कहा गया था : 'देवनागरी अथवा फारसी में लिखी जानेवाली हिन्दुस्तानी भारत की राजभाषा होगी, परन्तु कुछ समय के लिए अंग्रेजी का उपयोग जारी रहेगा' । सिवाय 'देवनागरी या फारसी' की जगह 'देवनागरी' तथा 'हिन्दुस्तानी' की जगह 'हिन्दी' रख देने के अंततः स्वतंत्र भारत के संविधान में इसी मत को अपना लिया गया।



  • वर्ष 1929 ई० में सुभाषचन्द्र बोस ने कहा : 'प्रांतीय ईष्र्या-द्वेष को दूर करने में जितनी सहायता इस हिन्दी प्रचार से मिलेगी, उतनी दूसरी किसी चीज से नहीं मिल सकती। अपनी प्रांतीय भाषाओं की भरपूर उन्नति कीजिए, उसमें कोई बाधा नहीं डालना चाहता और न हम किसी की बाधा को सहन ही कर सकते हैं। पर सारे प्रांतों की सार्वजनिक भाषा का पद हिन्दी या हिन्दुस्तानी को ही मिला है'।



  • वर्ष 1931 ई० में गाँधीजी ने लिखा : 'यदि स्वराज्य अंग्रेजी-पढ़े भारतवासियों का है और केवल उनके लिए है तो संपर्क भाषा अवश्य अंग्रेजी होगी। यदि वह करोड़ों भूखे लोगों, करोड़ों निरक्षर लोगों, निरक्षर स्त्रियों, सताये हुए अछूतों के लिए है तो संपर्क भाषा केवल हिन्दी हो सकती है'।

  • गाँधीजी जनता की बात जनता की भाषा में करने के पक्षधर थे।


  • वर्ष 1936 ई० में गाँधीजी ने कहा : 'अगर हिन्दुस्तान को सचमुच आगे बढ़ना है तो चाहे कोई माने या न माने राष्ट्रभाषा तो हिन्दी ही बन सकती है क्योंकि जो स्थान हिन्दी को प्राप्त है वह किसी और भाषा को नहीं मिल सकता'।



  • वर्ष 1937 ई० में देश के कुछ राज्यों में कांग्रेस मंत्रिमंडल गठित हुआ। इन राज्यों में हिन्दी की पढ़ाई को प्रोत्साहित करने का संकल्प लिया गया।



  • जैसे-जैसे स्वतंत्रता-संग्राम तीव्रतर होता गया वैसे-वैसे हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का आंदोलन जोर पकड़ता गया। 20 वीं सदी के चौथे दशक तक हिन्दी राष्ट्रभाषा के रूप में आम सहमति प्राप्त कर चुकी थी। वर्ष 1942 से 1945 का समय ऐसा था जब देश में स्वतंत्रता की लहर सबसे अधिक तीव्र थी, तब राष्ट्रभाषा से ओत-प्रोत जितनी रचनाएँ हिन्दी में लिखी गई उतनी शायद किसी और भाषा में इतने व्यापक रूप से कभी नहीं लिखी गई। राष्ट्रभाषा के प्रचार के साथ राष्ट्रीयता के प्रबल हो जाने पर अंग्रेजी को भारत छोड़ना पड़ा।

  • राष्ट्रभाषा आंदोलन (हिन्दी आंदोलन) से संबंधित धार्मिक सामाजिक संस्थाएँ
    नाममुख्यालयस्थापनासंस्थापक
    ब्रह्म समाजकलकत्ता1828 ई०राजा राम मोहन राय
    प्रार्थना समाजबंबई1867 ई०आत्मारंग पाण्डुरंग
    आर्य समाजबंबई1875 ई०दयानंद सरस्वती
    थियोसोफिकल सोसायटीअडयार मद्रास1882 ई०कर्नल एच.एस.आलकाट एवं मैडम बलावत्सकी
    सनातन धर्म सभ (भारत धर्म महामंडल-1902 में नाम परिवर्तन)वाराणसी1895 ई०पं० दीन दयाल शर्मा
    रामकृष्ण मिशनबेलुर1897 ई०विवेकानंद
    राष्ट्रभाषा आंदोलन (हिन्दी आंदोलन) से संबंधित साहित्यिक संस्थाएँ
    नाममुख्यालयस्थापना
    नागरी प्रचारिणी सभाकाशी/वाराणसी1893 ई०
    संस्थापक-त्रयी-श्याम सुंदर दास, राम नारायण मिश्र व शिव कुमार सिंह
    हिन्दी साहित्य सम्मेलनप्रयाग1910 ई० (प्रथम सभापति-मदन मोहन मालवीय)
    गुजरात विद्यापीठअहमदाबाद1920 ई०
    बिहार विद्यापीठपटना1921 ई०
    हिन्दुस्तानी एकेडमीइलाहाबाद1927 ई०
    दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा (पूर्व नाम-हिन्दी साहित्य सम्मेलन)मद्रास1927 ई०
    हिन्दी विद्यापीठदेवघर1929 ई०
    राष्ट्रभाषा प्रचार समितिवर्धा1936 ई०
    महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभापुणे1937 ई०
    बंबई हिन्दी विद्यपीठबंबई1938 ई०
    असम राष्ट्रभाषा प्रचार समितिगुवाहटी1938 ई०
    बिहार राष्ट्रभाषा परिषदपटना1951 ई०
    अखिल भारतीय हिन्दी संस्था संघनई दिल्ली1964 ई०
    नागरी लिपि परिषदनई दिल्ली1975 ई०
    राष्ट्रभाषा आंदोलन (हिन्दी आंदोलन) से संबंधित व्यक्तित्व
    बंगाल : राजा राम मोहन राय, केशवचन्द्र सेन, नवीन चन्द्र राय, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, तरुणी चरण मित्र, राजेन्द्र लाल मित्र, राज नारायण बसु, भूदेव मुखर्जी, बंकिम चन्द्र चटर्जी ('हिन्दी भाषा की सहायता से भारतवर्ष के विभिन्न प्रदेशों के मध्य में जो ऐक्यबंधन संस्थापन करने में समर्थ होंगे वही सच्चे भारतबंधु पुकारे जाने योग्य है'।), सुभाष चन्द्र बोस ('अगर आज हिन्दी भाषा मान ली गई है तो वह इसलिए नहीं कि वह किसी प्रांत विशेष की भाषा है, बल्कि इसलिए कि वह अपनी सरलता, व्यापकता तथा क्षमता के कारण सारे देश की भाषा हो सकती है।'), रवीन्द्र नाथ टैगोर ('यदि हम प्रत्येक भारतीय के नैसर्गिक अधिकारों के सिद्धांत को स्वीकार करते हैं, तो हमें राष्ट्रभाषा के रूप में उस भाषा को स्वीकार करना चाहिए जो देश के सबसे बड़े भूभाग में बोली जाती है और जिसे स्वीकार करने की सिफारिश महात्मा गाँधी ने हमलोगों से की है। इसी विचार से हमें एक भाषा की आवश्यकता है और वह हिन्दी है।'), रामानंद चटर्जी, सरोजनी नायडू, शारदा चरण मित्र (अखिल भारतीय लिपि के रूप में देवनागरी लिपि के प्रथम प्रचारक), आचार्य क्षिति मोहन सेन ('हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने हेतु जो अनुष्ठान हुए हैं, उनको मैं संस्कृति का राजसूय यज्ञ समझता हूँ।' आदि।
    महाराष्ट्र : बाल गंगाधर तिलक ('यह आंदोलन उतर भारत में केवल एक सर्वमान्य लिपि के प्रचार के लिए नहीं है। यह तो उस आंदोलन का एक अंग है, जिसे मैं राष्ट्रीय आंदोलन कहूँगा और जिसका उद्देश्य समस्त भारतवर्ष के लिए एक राष्ट्रीय भाषा की स्थापना करना है, क्योंकि सबके लिए समान भाषा राष्ट्रीयता का महत्वपूर्ण अंग है। अतएव यदि आप किसी राष्ट्र के लोगों को एक दूसरे के निकट लाना चाहें तो सबके लिए समान भाषा से बढ़कर सशक्त अन्य कोई बल नहीं है।'), एन.सी.केलकर, डॉ भण्डारकर, वी० डी० सावरकर, गोपाल कृष्ण गोखले, गाडगिल, काका कालेलकर आदि।
    पंजाब : लाला लाजपत राय, श्रद्धाराम फिल्लौरी आदि।
    गुजरात : दयानंद सरस्वती, महात्मा गाँधी, वल्लभभाई पटेल, कन्हैयालाल माणिकलाल (के० एम०) मुंशी ('हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाना नहीं है; वह तो है ही'।) आदि।
    दक्षिण भारत : सी० राजागोपालाचारी, टी० विजयराघवाचार्य ('हिन्दुस्तान की सभी जीवित और प्रचलित भाषाओं में मुझे हिन्दी ही राष्ट्रभाषा बनने के लिए सबसे अधिक योग्य दीख पड़ती है'।), सी० पी० रामास्वामी अय्यर ('देश के विभिन्न भागों के निवासियों के व्यवहार के लिए सर्वसुगम और व्यापक तथा एकता स्थापित करने के साधन के रूप में हिन्दी का ज्ञान आवश्यक है।'), अनन्त शयनम आयंगर ('हिन्दी ही उत्तर और दक्षिण को जोड़नेवाली समर्थ भाषा है।'), एस० निजलिंगप्पा ('दक्षिण की भाषाओं ने संस्कृत से बहुत कुछ लेन-देन किया है, इसलिए उसी परंपरा में आई हुई हिन्दी बड़ी सरलता से राष्ट्रभाषा होने लायक है।'), रंगनाथ रामचन्द्र दिवाकर ('जो राष्ट्रप्रेमी है, उसे राष्ट्रभाषा प्रेमी होना चाहिए।'), के० टी० भाष्यम, आर० वेंकटराम शास्त्री, एन० सुन्दरैया आदि।
    अन्य : मदन मोहन मालवीय, पुरुषोत्तम दास टंडन (उपनाम- 'हिन्दी का प्रहरी', कथन : 'मैं हिन्दी का और हिन्दी मेरी है।'), राजेन्द्र प्रसाद, सेठ गोविंद दास आदि।
    महात्मा गाँधी के भाषा-संबंधी विचार
    1.करोड़ों लोगों को अंग्रेजी की शिक्षा देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है। मैकाले ने शिक्षा की जो बुनियाद डाली, वह सचमुच गुलामी की बुनियाद थी'। ('हिन्द स्वराज्य' 1909)
    2.'अंग्रेजी भाषा हमारे राष्ट्र के पांव में बेड़ी बनकर पड़ी हुई है। ...... भारतीय विद्यार्थी को अंग्रेजी के मार्फत ज्ञान अर्जित करने पर कम-से-कम 6 वर्ष अधिक बर्बाद करने पड़ते हैं। .... यदि हमें एक विदेशी भाषा पर अधिकार पाने के लिए जीवन के अमूल्य वर्ष लगा देने पड़े, तो फिर और क्या हो सकता है' । (1914)
    3.'जिस भाषा में तुलसीदास जैसे कवि ने कविता की हो, वह अत्यंत पवित्र है और उसके सामने कोई भाषा ठहर नहीं सकती'। (1916)
    4.'हिन्दी ही हिन्दुस्तान के शिक्षित समुदाय की सामान्य भाषा हो सकती है यह बात निर्विवाद सिद्ध है। .... जिस स्थान को अंग्रेजी भाषा आजकल लेने का प्रयत्न कर रही है और जिसे लेना उसके लिए असंभव है, वही स्थान हिन्दी को मिलना चाहिए क्योंकि हिन्दी का उस पर पूर्ण अधिकार है। यह स्थान अंग्रेजी को नहीं मिल सकता क्योंकि वह विदेशी भाषा है और हमारे लिए बड़ी कठिन है' । (1917)
    5.'हिन्दी भाषा वह भाषा है जिसको उत्तर में हिन्दू व मुसलमान बोलते है और जो नागरी और फारसी लिपि में लिखी जाती है। यह हिन्दी एकदम संस्कृतमयी नहीं है और न ही वह एकदम फारसी शब्दों से लदी है'। (1918)
    6.'हिन्दी और उर्दू नदियाँ है और हिन्दुस्तानी सागर है। हिन्दी और उर्दू दोनों को आपस में झगड़ा नहीं करना चाहिए। दोनों का मुकाबला तो अंग्रेजी से है' ।(1917)
    7.'अंग्रेजी के व्यामोह से पिंड छुड़ाना स्वराज्य का एक अनिवार्य अंग है'।
    8.'मैं यदि तानाशाह होता (मेरा बस चलता) तो आज ही विदेशी भाषा में शिक्षा देना बंद कर देता, सारे अध्यापकों को स्वदेशी भाषाएँ अपनाने पर मजबूर कर देता। जो आनाकानी करते, उन्हें बर्खास्त कर देता। मैं पाठ्य-पुस्तकों की तैयारी का इंतजार नहीं करूँगा, वे तो माध्यम के परिवर्तन के पीछे-पीछे अपने-आप चली आएगी। यह एक ऐसी बुराई है, जिसका तुरन्त इलाज होना चाहिए' ।
    9.'मेरी मातृभाषा में कितनी ही खामियाँ क्यों न हों, मैं इससे इसी तरह चिपटा रहूँगा जिस तरह बच्चा अपनी माँ की छाती से, जो मुझे जीवनदायी दूध दे सकती है। अगर अंग्रेजी उस जगह को हड़पना चाहती है जिसकी वह हकदार नहीं है, तो मैं उससे सख्त नफरत करूँगा- वह कुछ लोगों के सीखने की वस्तु हो सकती है, लाखों-करोड़ो की नहीं' ।
    10.'लिपियों में सबसे अव्वल दरजे की लिपि नागरी को ही मानता हूँ। मैं मानता हूँ कि नागरी और उर्दू लिपि के बीच अंत में जीत नागरी लिपि की ही होगी'।

    स्वतंत्रता के बाद हिन्दी का राजभाषा के रूप में विकास

    राजभाषा (Official Language) क्या है ?
    (1) राजभाषा का शाब्दिक अर्थ है- राज-काज की भाषा। जो भाषा देश के राजकीय कार्यों के लिए प्रयुक्त होती है, वह 'राजभाषा' कहलाती है। राजाओं-नवाबों के जमाने में इसे 'दरबारी भाषा' कहा जाता था।
    (2) राजभाषा सरकारी काम-काज चलाने की आवश्यकता की उपज होती है।
    (3) स्वशासन आने के पश्चात राजभाषा की आवश्यकता होती है प्रायः राष्ट्रभाषा ही स्वशासन आने के पश्चात राजभाषा बन जाती है। भारत में भी राष्ट्रभाषा हिन्दी को राजभाषा का दर्जा प्राप्त हुआ।
    (4) राजभाषा एक संवैधानिक शब्द है। हिन्दी को 14 सितम्बर 1949 ई० को संवैधानिक रूप से राजभाषा घोषित किया गया। इसलिए प्रत्येक वर्ष 14 सितम्बर को 'हिन्दी दिवस' के रूप में मनाया जाता है।
    (5) राजभाषा देश को अपने प्रशासनिक लक्ष्यों के द्वारा राजनीतिक-आर्थिक इकाई में जोड़ने का काम करती है। अर्थात राजभाषा की प्राथमिक शर्त राजनीतिक प्रशासनिक एकता कायम करना है।
    (6) राजभाषा का प्रयोग-क्षेत्र सीमित होता है, यथा : वर्तमान समय में भारत सरकार के कार्यालयों एवं कुछ राज्यों- हिन्दी क्षेत्र के राज्यों-में राज-काज हिन्दी में होता है। अन्य राज्य सरकारें अपनी-अपनी भाषा में कार्य करती हैं, हिन्दी में नहीं; महाराष्ट्र मराठी में, पंजाब पंजाबी में, गुजरात गुजराती में आदि।
    (7) राजभाषा कोई भी भाषा हो सकती है स्वभाषा या परभाषा। जैसे, मुगल शासक अकबर के समय से लेकर मैकाले के काल तक फारसी राजभाषा तथा मैकाले के काल से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति तक अंग्रेजी राजभाषा थी जो कि विदेशी भाषा थी। जबकि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया गया। जो कि स्वभाषा है।
    (8) राजभाषा का एक निश्चित मानक स्वरूप होता है जिसके साथ छेड़छाड़ या प्रयोग नहीं किया जा सकता।
    (I) हिन्दी की संवैधानिक स्थिति व उसकी समीक्षा


  • स्वतंत्रता के पूर्व जो छोटे-बड़े राष्ट्रनेता राष्ट्रभाषा या राजभाषा के रूप में हिन्दी को अपनाने के मुद्दे पर सहमत थे, उनमें से अधिकांश गैर-हिन्दी भाषी नेता स्वतंत्रता मिलने के वक्त हिन्दी के नाम पर बिदकने लगे।



  • यही वजह थी कि संविधान सभा में केवल हिन्दी पर विचार नहीं हुआ; राजभाषा के नाम पर जो बहस वहाँ 11 सितम्बर, 1949 ई० से 14 सितम्बर, 1949 ई० तक हुई, उसमें हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत एवं हिन्दुस्तानी के दावे पर विचार किया गया।



  • किन्तु संघर्ष की स्थिति सिर्फ हिन्दी एवं अंग्रेजी के समर्थक के बीच ही देखने को मिली। हिन्दी समर्थक वर्ग में भी दो गुट थे। एक गुट देवनागरी लिपि वाली हिन्दी का समर्थक था; दूसरा गुट (महात्मा गाँधी, जे.एल.नेहरू, अब्दुल कलाम आजाद आदि) दो लिपियों वाली हिन्दुस्तानी के पक्ष में था।



  • आजाद भारत में एक विदेशी भाषा, जिसे देश का बहुत थोड़ा-सा अंश (अधिक-से-अधिक 1 या 2%) ही पढ़-लिख और समझ सकता था, देश की राजभाषा नहीं बन सकती थी। लेकिन यकायक अंग्रेजी को छोड़ने में भी दिक्कतें थीं। प्रायः 150 वर्षों से अंग्रेजी प्रशासन और उच्च शिक्षा की भाषा रही थी। हिन्दी देश की 46% जनता की भाषा थी। राजभाषा बनने के लिए हिन्दी का दावा न्याययुक्त था। साथ ही, प्रादेशिक भाषाओं की भी सर्वथा उपेक्षा नहीं की जा सकती थी।



  • इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए संविधान निर्माताओं ने राजभाषा की समस्या को हल करने की कोशिश की। संविधान सभा के भीतर और बाहर हिन्दी के विपुल समर्थन को देखकर संविधान सभा ने हिन्दी के पक्ष में अपना फैसला दिया। यह फैसला हिन्दी विरोधी एवं हिन्दी समर्थकों के बीच 'मुंशी-आयंगार फॉर्मूले' के द्वारा समझौते के परिणामस्वरूप सामने आया, जिसकी प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार थीं-
    (1) हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं बल्कि राजभाषा है।
    (2) संविधान के लागू होने के दिन से 15 वर्षो की अवधि तक अंग्रेजी बनी रहेगी।
    (3) एक अस्पष्ट निर्देश (अनु० 351) के आधार पर हिन्दी एवं हिन्दुस्तानी के विवाद को दूर कर लिया गया।



  • संविधान में भाषा-विषयक उपबंध अनु० 120 अनु० 210 एवं भाषा-विषयक एक पृथक भाग- भाग 17 (राजभाषा) के अनु० 343 से 351 तक एवं 8वीं अनुसूची में दिए गए हैं। संविधान के ये भाषा-विषयक उपबंध हिन्दी, अंग्रेजी एवं प्रादेशिक भाषाओं के परस्पर विरोधी दावों के बीच सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास करते हैं।

  • अनु 120 : संसद में प्रयोग की जानेवाली भाषा
    संसद का कार्य हिन्दी में या अंग्रेजी में किया जाएगा, परन्तु यथास्थिति लोकसभाध्यक्ष या राज्य सभा का सभापति किसी सदस्य को उसकी मातृभाषा में सदन को संबोधित करने की अनुमति दे सकता है। संसद विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे तो 15 वर्ष की अवधि के पश्चात 'या अंग्रेजी में' शब्दों का लोप किया जा सकेगा।
    अनु 210 : राज्य विधानमंडल में प्रयोग की जानेवाली भाषा
    राज्यों के विधानमण्डलों का कार्य अपने-अपने राज्य की राजभाषा या राजभाषाओं में या हिन्दी में या अंग्रेजी में किया जाएगा, परन्तु यथास्थिति विधानसभाध्यक्ष या विधान परिषद का सभापति किसी सदस्य को उसकी मातृभाषा में सदन को संबोधित करने की अनुमति दे सकता है। संसद विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे तो 15 वर्ष की अवधि के पश्चात 'या अंग्रजी में' शब्दों का लोप किया जा सकेगा।

    भाग-17 
    राजभाषा 
    अध्याय 1 : संघ की भाषा

    अनु० 343 : संघ की राजभाषा
    (1) संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी। अंकों का रूप भारतीय अंकों का अन्तराष्ट्रीय रूप होगा।
    (2) इस संविधान के प्रारंभ से 15 वर्ष की अवधि तक (अर्थात 1965 तक) उन सभी शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा, जिनके लिए पहले प्रयोग किया जा रहा था।
    परन्तु राष्ट्रपति उक्त अवधि के दौरान संघ के शासकीय प्रयोजनों में से किसी के लिए अंग्रेजी भाषा के अतिरिक्त हिन्दी भाषा का और भारतीय अंकों के अन्तराष्ट्रीय रूप के अतिरिक्त देवनागरी रूप का प्रयोग प्राधिकृत कर सकेगा।
    (3) संसद उक्त 15 वर्ष की अवधि के पश्चात, विधि द्वारा
    (i) अंग्रेजी भाषा का; या
    (ii) अंकों के देवनागरी रूप का,
    ऐसे प्रयोजनों के लिए प्रयोग उपबंधित कर सकेगी जो ऐसी विधि में विनिर्दिष्ट किए जाएँ।
    अनु० 344 : राजभाषा के संबंध में आयोग (5 वर्ष के उपरांत राष्ट्रपति द्वारा) और संसद की समिति (10 वर्ष के उपरांत)

    अध्याय 2 : प्रादेशिक भाषाएँ

    अनु० 345 : राज्य की राजभाषा या राजभाषाएँ (प्रादेशिक भाषा/ भाषाएँ या हिन्दी; ऐसी व्यवस्था होने तक अंग्रेजी का प्रयोग जारी)
    अनु० 346 : एक राज्य और दूसरे राज्य के बीच या किसी राज्य और संघ के बीच पत्रादि की राजभाषा (संघ द्वारा तत्समय प्राधिकृत भाषा; आपसी करार होने पर दो राज्यों के बीच हिन्दी)
    अनु० 347 : किसी राज्य की जनसंख्या के किसी अनुभाग द्वारा बोली जानेवाली भाषा के संबंध में विशेष उपबंध

    अध्याय 3 : SC, HC आदि की भाषा

    अनु० 348 : SC और HC में और संसद व राज्य विधान मंडल में विधेयकों, अधिनियमों आदि के लिए प्रयोग की जानेवाली भाषा (उपबंध होने तक अंग्रेजी जारी)
    अनु० 349 : भाषा से संबंधित कुछ विधियाँ अधिनियमित करने के लिए विशेष प्रकिया (राजभाषा संबंधी कोई भी विधेयक राष्ट्रपति की पूर्व मंजूरी के बिना पेश नहीं की जा सकती और राष्ट्रपति भी आयोग की सिफारिशों पर विचार करने के बाद ही मंजूरी दे सकेगा)

    अध्याय 4 : विशेष निदेश

    अनु० 350 : व्यथा के निवारण के लिए अभ्यावेदन में प्रयोग की जानेवाली भाषा (किसी की भाषा में)
    (i) भाषाई अल्पसंख्यक वर्गों के लिए प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की सुविधाएँ
    (ii) भाषाई अल्पसंख्यक वर्गो के लिए विशेष अधिकारी की नियुक्ति (राष्ट्रपति द्वारा)
    अनु० 351 : हिन्दी के विकास के लिए निर्देश
    संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिन्दी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके। और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिन्दुस्तानी में और 8वीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदावली को आत्मसात करते हुए जहाँ आवश्यक या वांछनीय हो वहाँ उसके शब्द-भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करें।

    8वीं अनुसूची

    भाषाएँ
    8वीं अनुसूची में संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त 22 प्रादेशिक भाषाओं का उल्लेख है। इस अनुसूची में आरंभ में 14 भाषाएँ [(1) असमिया (2) बांग्ला (3) गुजराती (4) हिन्दी (5) कन्नड़ (6) कश्मीरी (7) मलयालम (8) मराठी (9) उड़िया (10) पंजाबी (11) संस्कृत (12) तमिल (13) तेलुगू (14) उर्दू ] थीं। बाद में सिंधी को (21 वां संशोधन, 1967 ई०), तत्पश्चात कोंकणी, मणिपुरी, नेपाली को (71वां संशोधन, 1992 ई०) शामिल किया गया, जिससे इसकी संख्या 18 हो गई। तदुपरांत बोडो, डोगरी, मैथली, संथाली को (92 वां संशोधन, 2003) शामिल किया गया और इस प्रकार इस अनुसूची में 22 भाषाएँ हो गई।

    अध्याय 1 (संघ की भाषा) की समीक्षा

    अनु० 343 के संदर्भ में : संविधान के अनु० 343 (1) के अनुसार संघ की राजभाषा देवनागरी लिपि में लिखित हिन्दी घोषित की गई है। इससे देश के बहुमत की इच्छा ही प्रतिध्वनित होती है। अनु० 343 (2) के अनुसार इसे भारतीय संविधान लागू होने की तारीख अर्थात 26 जनवरी, 1950 ई० से लागू नहीं किया जा सकता था। इसे लागू करने के लिए संविधान लागू होने के 15 वर्ष बाद की अवधि रखी तो गई, परन्तु फिर अनु० 343 (3) के द्वारा सरकार ने यह शक्ति प्राप्त कर ली कि वह इस 15 वर्ष की अवधि के बाद भी अंग्रेजी का प्रयोग जारी रख सकती है। रही-सही कसर, बाद में राजभाषा अधिनियम, 1963 ने पूरी कर दी क्योंकि इस अधिनियम ने सरकार के इस उद्देश्य को साफ कर दिया कि अंग्रेजी की हुकूमत देश पर अनंत काल तक बनी रहेगी।
    इस प्रकार, संविधान में की गई व्यवस्था 343 (1) हिन्दी के लिए वरदान थी। परन्तु 343 (2) एवं 343 (3) की व्यवस्थाओं ने इस वरदान को अभिशाप में बदल दिया। वस्तुतः संविधान निर्माणकाल में संविधान निर्माताओं में जन साधारण की भावना के प्रतिकूल व्यवस्था करने का साहस नहीं था, इसलिए 343 (1) की व्यवस्था की गई। परन्तु अंग्रेजियत का वर्चस्व बनाये रखने के लिए 343 (2) एवं 343 (3) से उसे प्रभावहीन कर देश पर मानसिक गुलामी लाद दी गई।
    अनु० 344 के संदर्भ में : अनु० 344 के अधीन प्रथम राजभाषा आयोग/बी० जी० खेर आयोग का 1955 में तथा संसदीय राजभाषा समिति/जी० बी० पंत समिति का 1957 में गठन हुआ। जहाँ खेर आयोग ने हिन्दी को एकान्तिक व सर्वश्रेष्ठ स्थिति में पहुँचाने पर जोर दिया वहाँ पंत समिति ने हिन्दी को प्रधान राजभाषा बनाने पर जोर तो दिया लेकिन अंग्रेजी को हटाने की बजाय उसे सहायक राजभाषा बनाये रखने की वकालत की। हिन्दी के दुर्भाग्य से सरकार ने खेर आयोग को महज औपचारिक माना और हिन्दी के विकास के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए; जबकि सरकार ने पंत समिति की सिफारिशों को स्वीकार किया, जो आगे चलकर राजभाषा अधिनियम 1963/67 का आधार बनी जिसने हिन्दी का सत्यानाश कर दिया।
    समग्रता से देखें तो स्वतंत्रता-संग्राम काल में हिन्दी देश में राष्ट्रीय चेतना का प्रतीक थी अतएव राष्ट्रभाषा बनी, और राजभाषा अधिनियम 1963 के बाद यह केवल संपर्क भाषा होकर रह गयी।

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